Tuesday, 22 September 2009

कविता

किनकी चीखे बरसी गरजते काले बादलो के साथ?
किसके आंसू समाये उचलती सागर की लहरों में?
कितने स्वप्न बिखरे सूखे सुनसान रेतो के सेहर?

ये जो मरे, मारे , बरबाद हुए,
उजाले की खोज में
घायल हुए आशा की चट्टानों पर
उजड़ गए आज़ादी की उम्मीदों पे

उनको बरबाद किया
इन आजाद देश के दलालों ने
तोला सोने के सिक्के से
बेचा लहू और भूखे इन्सानों से

यह नही पहचाना कि-
हम भी मरेंगे - मार उजाड़ कर
कुछ महेल, कुछ सिक्को कमा कर
अहंकार कि चोटी पर - हम भी मरेंगे!
धूल हो जायेंगे!
और नही छोडेंगे,
कोई गीत, कोए स्वप्न,
कोई उजाले कि परख-
कोई रंग, कोई सुर कि तलाश
सीर्फ खरीददार की समज,
और सोने की चमक,
बस, ...सीर्फ यह!!





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